शनिवार, 15 नवंबर 2014

====श्री नारायण कवच===== === जीवन में उन्नति और सर्वबाधा के निवारण हेतु प्रयोग करें ==

====श्री नारायण कवच=====
=== जीवन में उन्नति और सर्वबाधा के निवारण हेतु प्रयोग करें ==

न्यासः- सर्वप्रथम श्रीगणेश जी तथा भगवाननारायण को नमस्कार करके नीचे लिखे प्रकार सेन्यास करें।
अगं-न्यासः-
ॐ ॐ नमः — पादयोः ( दाहिने हाँथ की तर्जनी वअंगुठा — इन दोनों को मिलाकरदोनों पैरों का स्पर्श करें)।
ॐ नं नमः — जानुनोः ( दाहिने हाँथ की तर्जनी वअंगुठा — इन दोनों को मिलाकरदोनों घुटनों का स्पर्श करें )।
ॐ मों नमः — ऊर्वोः (दाहिने हाथकी तर्जनी अंगुठा — इन दोनों को मिलाकरदोनों पैरों की जाँघ का स्पर्श करें)।
ॐ नां नमः — उदरे ( दाहिने हाथकी तर्जनी तथा अंगुठा — इन दोनों को मिलाकर पेटका स्पर्श करे )
ॐ रां नमः — हृदि ( मध्यमा-अनामिका-तर्जनी सेहृदय का स्पर्श करें )
ॐ यं नमः – उरसि ( मध्यमा- अनामिका-तर्जनी सेछाती का स्पर्श करे )
ॐ णां नमः — मुखे ( तर्जनी – अँगुठे के संयोग से मुखका स्पर्श करे )
ॐ यं नमः — शिरसि ( तर्जनी -मध्यमा के संयोग से सिर का स्पर्श करे )
कर-न्यासः-
ॐ ॐ नमः — दक्षिणतर्जन्याम् ( दाहिने अँगुठे सेदाहिने तर्जनी के सिरे का स्पर्श करे )
ॐ नं नमः —-दक्षिणमध्यमायाम् ( दाहिने अँगुठे सेदाहिने हाथ की मध्यमा अँगुली का ऊपर वालापोर-स्पर्शकरे)
ॐ मों नमः —दक्षिणानामिकायाम् ( दहिने अँगुठे सेदाहिने हाथ की अनामिका का ऊपरवाला पोर-स्पर्श करे )
ॐ भं नमः —-दक्षिणकनिष्ठिकायाम् (दाहिने अँगुठे सेहाथ की कनिष्ठिका का ऊपर वाला पोर स्पर्शकरे )
ॐ गं नमः —-वामकनिष्ठिकायाम् ( बाँये अँगुठे सेबाँये हाथ की कनिष्ठिका का ऊपर वाला पोरस्पर्श करे )
ॐ वं नमः —-वामानिकायाम् ( बाँये अँगुठे से बाँयेहाँथ की अनामिका का ऊपरवाला पोर स्पर्श करे )
ॐ तें नमः —-वाममध्यमायाम् ( बाँये अँगुठे से बायेहाथ की मध्यमा का ऊपरवाला पोर स्पर्श करे )
ॐ वां नमः —वामतर्जन्याम् ( बाँये अँगुठे से बाँये हाथकी तर्जनी का ऊपरवाला पोर स्पर्श करे )
ॐ सुं नमः —-दक्षिणाङ्गुष्ठोर्ध्वपर्वणि ( दाहिनेहाथ की चारों अँगुलियों से दाहिने हाथ के अँगुठेका ऊपरवाला पोर छुए )
ॐ दें नमः —–दक्षिणाङ्गुष्ठाधः पर्वणि ( दाहिनेहाथ की चारों अँगुलियों से दाहिने हाथ के अँगुठेका नीचे वाला-पोर छुए )
ॐ वां नमः —–वामाङ्गुष्ठोर्ध्वपर्वणि ( बाँये हाथकी चारों अँगुलियों से बाँये अँगुठे के ऊपरवाला पोरछुए )
ॐ यं नमः ——वामाङ्गुष्ठाधः पर्वणि ( बाँये हाथकी चारों अँगुलियों से बाँये हाथ के अँगुठे का नीचेवाला पोर छुए )
विष्णुषडक्षरन्यासः-
ॐ ॐ नमः ————हृदये ( तर्जनी – मध्यमा एवंअनामिका से हृदय का स्पर्श करे )
ॐ विं नमः ————-मूर्ध्नि ( तर्जनी मध्यमा के संयोगसिर का स्पर्श करे )
ॐ षं नमः —————भ्रुर्वोर्मध्ये ( तर्जनी-मध्यमा सेदोनों भौंहों का स्पर्श करे )
ॐ णं नमः —————शिखायाम् ( अँगुठे सेशिखा का स्पर्श करे )
ॐ वें नमः —————नेत्रयोः ( तर्जनी -मध्यमा सेदोनों नेत्रों का स्पर्श करे )
ॐ नं नमः —————सर्वसन्धिषु ( तर्जनी – मध्यमा औरअनामिका से शरीर के सभी जोड़ों — जैसे – कंधा,
घुटना, कोहनी आदि का स्पर्श करे )
ॐ मः अस्त्राय फट् — प्राच्याम् (पूर्व की ओर-चुटकी बजाएँ )
ॐ मः अस्त्राय फट् –आग्नेय्याम् ( अग्निकोण मेंचुटकी बजायें )
ॐ मः अस्त्राय फट् — दक्षिणस्याम् ( दक्षिण की ओरचुटकी बजाएँ )
ॐ मः अस्त्राय फट् — नैऋत्ये (नैऋत्य कोण मेंचुटकी बजाएँ )
ॐ मः अस्त्राय फट् — प्रतीच्याम्( पश्चिम की ओरचुटकी बजाएँ )
ॐ मः अस्त्राय फट् — वायव्ये ( वायुकोण मेंचुटकी बजाएँ )
ॐ मः अस्त्राय फट् — उदीच्याम्( उत्तर की ओरचुटकी बजाएँ )
ॐ मः अस्त्राय फट् — ऐशान्याम् (ईशानकोण मेंचुटकी बजाएँ )
ॐ मः अस्त्राय फट् — ऊर्ध्वायाम् ( ऊपर की ओरचुटकी बजाएँ )
ॐ मः अस्त्राय फट् — अधरायाम् (नीचे की ओरचुटकी बजाएँ )
श्री हरिः---अथ श्रीनारायणकवच
।।राजोवाच।।
यया गुप्तः सहस्त्राक्षः सवाहान् रिपुसैनिकान्।
क्रीडन्निव विनिर्जित्य त्रिलोक्या बुभुजे श्रियम्।।१
भगवंस्तन्ममाख्याहि वर्म नारायणात्मकम्।
यथाssततायिनः शत्रून् येन गुप्तोsजयन्मृधे।।२

राजा परिक्षित ने पूछाः भगवन् ! देवराज इंद्र नेजिससे सुरक्षित होकर शत्रुओंकी चतुरङ्गिणी सेना को खेल-खेल में अनायासहीजीतकर त्रिलोकी की राज लक्ष्मी का उपभोगकिया, आप उस नारायण कवच को सुनाइये और यहभी बतलाईये कि उन्होंने उससे सुरक्षित होकररणभूमि में किस प्रकार आक्रमणकारी शत्रुओं पर विजयप्राप्त की ।।१-२
।।श्रीशुक उवाच।।
वृतः पुरोहितोस्त्वाष्ट्रो महेन्द्रायानुपृच्छते।
नारायणाख्यं वर्माह तदिहैकमनाः शृणु।।३

श्रीशुकदेवजी ने कहाः परीक्षित् ! जब देवताओं नेविश्वरूप को पुरोहित बना लिया, तब देवराज इन्द्र केप्रश्न करने पर विश्वरूप ने नारायण कवच का उपदेशदिया तुम एकाग्रचित्त से उसका श्रवण करो ।।३
विश्वरूप उवाचधौताङ्घ्रिपाणिराचम्य सपवित्र उदङ्मुखः।
कृतस्वाङ्गकरन्यासो मन्त्राभ्यां वाग्यतः शुचिः।।४
नारायणमयं वर्म संनह्येद् भय आगते।
पादयोर्जानुनोरूर्वोरूदरे हृद्यथोरसि।।५
मुखे शिरस्यानुपूर्व्यादोंकारादीनि विन्यसेत्।
ॐ नमो नारायणायेति विपर्ययमथापि वा।।६

विश्वरूप ने कहा – देवराज इन्द्र ! भय का अवसरउपस्थित होने पर नारायण कवच धारण करके अपने शरीरकी रक्षा कर लेनी चाहिए उसकी विधि यह हैकि पहले हाँथ-पैर धोकर आचमन करे, फिर हाथ में कुशकी पवित्री धारण करके उत्तर मुख करके बैठ जाय इसकेबाद कवच धारण पर्यंत और कुछ न बोलने का निश्चय 
करके पवित्रता से “ॐ नमो नारायणाय” और “ॐ
नमो भगवते वासुदेवाय” इन मंत्रों के
द्वारा हृदयादि अङ्गन्यास
तथा अङ्गुष्ठादि करन्यास करे पहले “ॐनमो नारायणाय” इस अष्टाक्षर मन्त्र के ॐ आदि आठ
अक्षरों का क्रमशः पैरों, घुटनों, जाँघों, पेट, हृदय,वक्षःस्थल, मुख और सिर में न्यास करे अथवा पूर्वोक्तमन्त्र के यकार से लेकरॐ कार तक आठ अक्षरों का सिरसे आरम्भ कर उन्हीं आठ अङ्गों में विपरित क्रम से न्यासकरे ।।४-६
करन्यासं ततः कुर्याद् द्वादशाक्षरविद्यया।
प्रणवादियकारन्तमङ्गुल्यङ्गुष्ठपर्वसु।।७

तदनन्तर “ॐ नमो भगवते वासुदेवाय” इस द्वादशाक्षर -मन्त्र के ॐ आदि बारह अक्षरों का दायीं तर्जनी सेबाँयीं तर्जनी तक दोनों हाँथ की आठ अँगुलियों औरदोनों अँगुठों की दो-दो गाठों में न्यास करे।।७
न्यसेद् हृदय ओङ्कारं विकारमनु मूर्धनि।
षकारं तु भ्रुवोर्मध्ये णकारं शिखया दिशेत्।।८
वेकारं नेत्रयोर्युञ्ज्यान्नकारं सर्वसन्धिषु।
मकारमस्त्रमुद्दिश्य मन्त्रमूर्तिर्भवेद् बुधः।।९
सविसर्गं फडन्तं तत् सर्वदिक्षु विनिर्दिशेत्।
ॐ विष्णवे नम इति ।।१०

फिर “ॐ विष्णवे नमः” इस मन्त्र के पहले के पहले अक्षर‘ॐ’ का हृदय में, ‘वि’ का ब्रह्मरन्ध्र , में ‘ष’का भौहों के बीच में, ‘ण’ का चोटी में, ‘वे’का दोनों नेत्रों और ‘न’ का शरीर की सब गाँठों मेंन्यास करे तदनन्तर ‘ॐ मः अस्त्राय फट्’ कहकर दिग्बन्धकरे इस प्रकर न्यास करने से इस विधि को जाननेवाला पुरूष मन्त्रमय हो जाता है ।।८-१०
आत्मानं परमं ध्यायेद ध्येयं षट्शक्तिभिर्युतम्।
विद्यातेजस्तपोमूर्तिमिमं मन्त्रमुदाहरेत ।।११

इसके बाद समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, लक्ष्मी, ज्ञान औरवैराग्य से परिपूर्ण इष्टदेव भगवान् का ध्यान करे औरअपने को भी तद् रूप ही चिन्तन करे तत्पश्चात् विद्या,तेज, और तपः स्वरूप इस कवच का पाठ करे ।।११
ॐ हरिर्विदध्यान्ममसर्वरक्षां न्यस्ताङ्घ्रिपद्मः पतगेन्द्रपृष्ठे।
दरारिचर्मासिगदेषुचापाशान्दधानोsष्टगुणोsष्टबाहुः ।।१२

भगवान् श्रीहरि गरूड़जी के पीठ पर अपने चरणकमल रखेहुए हैं, अणिमा आदि आठों सिद्धियाँ उनकी सेवा कररही हैं आठ हाँथों में शंख, चक्र, ढाल, तलवार, गदा,बाण, धनुष, और पाश (फंदा) धारण किए हुए हैं वेही ओंकार स्वरूप प्रभु सब प्रकार से सब ओर सेमेरी रक्षा करें।।१२
जलेषु मां रक्षतु मत्स्यमूर्तिर्यादोगणेभ्यो वरूणस्यपाशात्।
स्थलेषु मायावटुवामनोsव्यात् त्रिविक्रमः खेऽवतुविश्वरूपः ।।१३

मत्स्यमूर्ति भगवान् जल के भीतर जलजंतुओं से और वरूण केपाश से मेरी रक्षा करें माया से ब्रह्मचारी रूप धारणकरने वाले वामन भगवान् स्थल पर और विश्वरूपश्री त्रिविक्रमभगवान् आकाश में मेरी रक्षा करें 13
दुर्गेष्वटव्याजिमुखादिषुप्रभुः पायान्नृसिंहोऽसुरयुथपारिः।
विमुञ्चतो यस्य महाट्टहासं दिशो विनेदुर्न्यपतंश्चगर्भाः ।।१४
जिनके घोर अट्टहास करने पर सब दिशाएँ गूँज-उठी थीं और गर्भवती दैत्यपत्नियों के गर्भ गिर गये थे,वे दैत्ययुथपतियों के शत्रु भगवान् नृसिंह किले, जंगल,रणभूमि आदि विकट स्थानों में मेरी रक्षा करें ।।१४
रक्षत्वसौ माध्वनि यज्ञकल्पः स्वदंष्ट्रयोन्नीतधरोवराहः।
रामोऽद्रिकूटेष्वथ विप्रवासे सलक्ष्मणोsव्याद्भरताग्रजोsस्मान् ।।१५

अपनी दाढ़ों पर पृथ्वी को उठा लेने वालेयज्ञमूर्ति वराह भगवान् मार्ग में, परशुरामजी पर्वतों के शिखरों और लक्ष्मणजी के सहित भरत केबड़े भाई भगावन् रामचंद्र प्रवास के समय मेरी रक्षा करें।।१५
मामुग्रधर्मादखिलात् प्रमादान्नारायणः पातु नरश्चहासात्।
दत्तस्त्वयोगादथ योगनाथः पायाद्गुणेशः कपिलः कर्मबन्धात् ।।१६
भगवान् नारायण मारण – मोहन आदि भयंकरअभिचारों और सब प्रकार के प्रमादों सेमेरी रक्षा करें ऋषिश्रेष्ठ नर गर्व से, योगेश्वर भगवान्दत्तात्रेय योग के विघ्नों से औरत्रिगुणाधिपति भगवान् कपिल कर्मबन्धन सेमेरी रक्षा करें ।।१६
सनत्कुमारो वतुकामदेवाद्धयशीर्षा मां पथि देवहेलनात्।
देवर्षिवर्यः पुरूषार्चनान्तरात्कूर्मो हरिर्मां निरयादशेषात् ।।१७
परमर्षि सनत्कुमार कामदेव से, हयग्रीव भगवान् मार्ग मेंचलते समय देवमूर्तियों को नमस्कार आदि न करने केअपराध से, देवर्षि नारद सेवापराधों से और भगवान्कच्छप सब प्रकार के नरकों से मेरी रक्षा करें ।।१७
धन्वन्तरिर्भगवान् पात्वपथ्याद् द्वन्द्वाद्भयादृषभो निर्जितात्मा।
यज्ञश्च लोकादवताज्जनान्ताद् बलो गणात्क्रोधवशादहीन्द्रः ।।१८
भगवान् धन्वन्तरि कुपथ्य से, जितेन्द्र भगवान् ऋषभदेवसुख-दुःख आदि भयदायक द्वन्द्वों से, यज्ञ भगवान्लोकापवाद से, बलरामजी मनुष्यकृत कष्टों से औरश्रीशेषजी क्रोधवशनामक सर्पों के गणों सेमेरी रक्षा करें ।।१८
द्वैपायनो भगवानप्रबोधाद् बुद्धस्तु पाखण्डगणात्प्रमादात्।
कल्किः कले कालमलात् प्रपातुधर्मावनायोरूकृतावतारः ।।१९
भगवान् श्रीकृष्णद्वेपायन व्यासजी अज्ञान सेतथा बुद्धदेव पाखण्डियों से और प्रमाद सेमेरी रक्षा करें धर्म-रक्षा करने वाले महान अवतारधारण करने वाले भगवान् कल्कि पाप-बहुल कलिकाल केदोषों से मेरी रक्षा करें ।।१९
मां केशवो गदया प्रातरव्याद् गोविन्दआसङ्गवमात्तवेणुः।
नारायण प्राह्ण उदात्तशक्तिर्मध्यन्दिनेविष्णुररीन्द्रपाणिः ।।२०
प्रातःकाल भगवान् केशव अपनी गदा लेकर, कुछ दिनचढ़ जाने पर भगवान् गोविन्द अपनी बांसुरी लेकर,दोपहर के पहले भगवान् नारायण अपनी तीक्ष्णशक्ति लेकर और दोपहर को भगवान् विष्णु चक्रराजसुदर्शन लेकर मेरी रक्षा करें ।।२०
देवोsपराह्णे मधुहोग्रधन्वा सायं त्रिधामावतुमाधवो माम्।
दोषे हृषीकेश उतार्धरात्रे निशीथ एकोsवतुपद्मनाभः ।।२१
तीसरे पहर में भगवान् मधुसूदन अपना प्रचण्ड धनुष लेकरमेरी रक्षा करें सांयकाल मेंब्रह्मा आदि त्रिमूर्तिधारी माधव, सूर्यास्त के बादहृषिकेश, अर्धरात्रि के पूर्व तथा अर्ध रात्रि के समयअकेले भगवान् पद्मनाभ मेरी रक्षा करें ।।२१
श्रीवत्सधामापररात्र ईशः प्रत्यूषईशोऽसिधरो जनार्दनः।
दामोदरोऽव्यादनुसन्ध्यं प्रभाते विश्वेश्वरो भगवान्कालमूर्तिः ।।२२
रात्रि के पिछले प्रहर में श्रीवत्सलाञ्छन श्रीहरि,उषाकाल में खड्गधारी भगवान् जनार्दन, सूर्योदय सेपूर्व श्रीदामोदर और सम्पूर्ण सन्ध्याओं मेंकालमूर्ति भगवान् विश्वेश्वर मेरी रक्षा करें ।।२२
चक्रं युगान्तानलतिग्मनेमि भ्रमत् समन्ताद्भगवत्प्रयुक्तम्।
दन्दग्धि दन्दग्ध्यरिसैन्यमासु कक्षंयथा वातसखो हुताशः ।।२३
सुदर्शन ! आपका आकार चक्र ( रथ के पहिये ) की तरह हैआपके किनारे का भाग प्रलयकालीन अग्नि के समानअत्यन्त तीव्रहै। आप भगवान् की प्रेरणा से सब ओर घूमतेरहते हैं जैसे आग वायु की सहायता से सूखे घास-फूसको जला डालती है, वैसे ही आपहमारी शत्रुसेना को शीघ्र से शीघ्र जला दीजिये,जला दीजिये ।।२३
गदेऽशनिस्पर्शनविस्फुलिङ्गेनिष्पिण्ढि निष्पिण्ढ्यजितप्रियासि।
कूष्माण्डवैनायकयक्षरक्षोभूतग्रहांश्चूर्णय चूर्णयारीन्।।२४
कौमुद की गदा ! आपसे छूटनेवाली चिनगारियों का स्पर्श वज्र के समान असह्य हैआप भगवान् अजित की प्रिया हैं और मैं उनका सेवक हूँइसलिए आप कूष्माण्ड, विनायक, यक्ष, राक्षस, भूत औरप्रेतादि ग्रहों को अभी कुचल डालिये, कुचल डालिये=तथा मेरे शत्रुओं को चूर – चूर कर दिजिये ।।२४
त्वं यातुधानप्रमथप्रेतमातृपिशाचविप्रग्रहघोरदृष्टीन्।दरेन्द्र विद्रावय
कृष्णपूरितो भीमस्वनोऽरेर्हृदयानि कम्पयन् ।।२५
शङ्खश्रेष्ठ ! आप भगवान् श्रीकृष्ण के फूँकने से भयंकर शब्दकरके मेरे शत्रुओं का दिल दहला दीजिये एवं यातुधान,प्रमथ, प्रेत, मातृका, पिशाच तथा ब्रह्मराक्षसआदि भयावने प्राणियों को यहाँ से तुरन्तभगा दीजिये ।।२५
त्वं तिग्मधारासिवरारिसैन्यमीशप्रयुक्तो ममछिन्धि छिन्धि।
चर्मञ्छतचन्द्र छादय द्विषामघोनां हर पापचक्षुषाम्२६
भगवान् की श्रेष्ठ तलवार ! आपकी धार बहुत तीक्ष्ण हैआप भगवान् की प्रेरणा से मेरे शत्रुओं को छिन्न-भिन्नकर दिजिये।भगवान् की प्यारी ढाल ! आपमेंसैकड़ों चन्द्राकार मण्डल हैं आपपापदृष्टि पापात्मा शत्रुओं की आँखे बन्द कर दिजियेऔर उन्हें सदा के लिये अन्धा बना दीजिये ।।२६
यन्नो भयं ग्रहेभ्यो भूत् केतुभ्यो नृभ्य एव च।
सरीसृपेभ्यो दंष्ट्रिभ्यो भूतेभ्योंऽहोभ्य एव वा ।।२७
सर्वाण्येतानि भगन्नामरूपास्त्रकीर्तनात्।
प्रयान्तु संक्षयं सद्यो ये नः श्रेयः प्रतीपकाः ।।२८
सूर्य आदि ग्रह, धूमकेतु (पुच्छल तारे ) आदि केतु, दुष्टमनुष्य, सर्पादि रेंगने वाले जन्तु, दाढ़ोंवाले हिंसक पशु,भूत-प्रेत आदि तथा पापी प्राणियों से हमें जो-जो भय हो और जो हमारे मङ्गल के विरोधी हों – वेसभी भगावान् के नाम, रूप तथा आयुधों का कीर्तनकरने से तत्काल नष्ट हो जायें ।।२७-२८
गरूड़ो भगवान् स्तोत्रस्तोभश्छन्दोमयः प्रभुः।
रक्षत्वशेषकृच्छ्रेभ्यो विष्वक्सेनः स्वनामभिः ।।२९
बृहद्, रथन्तर आदि सामवेदीय स्तोत्रों सेजिनकी स्तुति की जाती है, वे वेदमूर्ति भगवान् गरूड़और विष्वक्सेनजी अपने नामोच्चारण के प्रभाव से हमेंसब प्रकार की विपत्तियों से बचायें।।२९
सर्वापद्भ्यो हरेर्नामरूपयानायुधानि नः।
बुद्धिन्द्रियमनः प्राणान् पान्तु पार्षदभूषणाः ।।३०
श्रीहरि के नाम, रूप, वाहन, आयुध और श्रेष्ठ पार्षदहमारी बुद्धि , इन्द्रिय , मन और प्राणों को सबप्रकार की आपत्तियों से बचायें।।३०
यथा हि भगवानेव वस्तुतः सद्सच्च यत्।
सत्यनानेन नः सर्वे यान्तु नाशमुपाद्रवाः ।।३१
जितना भी कार्य अथवा कारण रूप जगत है, वह वास्तवमें भगवान् ही है इस सत्य के प्रभाव से हमारे सारे उपद्रवनष्ट हो जायें।।३१
यथैकात्म्यानुभावानां विकल्परहितः स्वयम्।
भूषणायुद्धलिङ्गाख्या धत्ते शक्तीः स्वमायया ।।३२
तेनैव सत्यमानेन सर्वज्ञो भगवान् हरिः।
पातु सर्वैः स्वरूपैर्नः सदा सर्वत्र सर्वगः ।।३३
जो लोग ब्रह्म और आत्मा की एकता का अनुभव कर चुकेहैं, उनकी दृष्टि में भगवान् का स्वरूप समस्त विकल्पों सेरहित है-भेदों से रहित हैं फिर भी वेअपनी माया शक्ति के द्वारा भूषण, आयुध और रूपनामक शक्तियों को धारण करते हैं यह बात निश्चित=रूप से सत्य है इस कारण सर्वज्ञ, सर्वव्यापक भगवान्श्रीहरि सदा -सर्वत्र सब स्वरूपों से हमारी रक्षा करें।।३२-३३
विदिक्षु दिक्षूर्ध्वमधः समन्तादन्तर्बहिर्भगवान्नारसिंहः।
प्रहापयँल्लोकभयं स्वनेन ग्रस्तसमस्ततेजाः ।।३४जो अपने भयंकर अट्टहास से सब लोगों के भयको भगा देते हैं और अपनेतेज से सबका तेज ग्रस लेते हैं, वेभगवान् नृसिंह दिशा -विदिशा में, नीचे -ऊपर, बाहर-भीतर – सब ओर से हमारी रक्षा करें ।।३४
मघवन्निदमाख्यातं वर्म नारयणात्मकम्।
विजेष्यस्यञ्जसा येन दंशितोऽसुरयूथपान् ।।३५
देवराज इन्द्र ! मैने तुम्हें यह नारायण कवच सुना दिया हैइस कवच से तुम अपने को सुरक्षित कर लो बस, फिर तुमअनायास ही सब दैत्य – यूथपतियों को जीत करलोगे ।।३५
एतद् धारयमाणस्तु यं यं पश्यति चक्षुषा।
पदा वा संस्पृशेत् सद्यः साध्वसात् स विमुच्यते ।।३६
इस नारायण कवच को धारण करने वाला पुरूषजिसको भी अपने नेत्रों से देख लेता है अथवा पैर से छूदेता है, तत्काल समस्त भयों से से मुक्त हो जाता है 36
न कुतश्चित भयं तस्य विद्यां धारयतो भवेत्।
राजदस्युग्रहादिभ्यो व्याघ्रादिभ्यश्च कर्हिचित् ।।३७
जो इस वैष्णवी विद्या को धारण कर लेता है, उसेराजा, डाकू, प्रेत, पिशाच आदि और बाघआदि हिंसक जीवों से कभी किसी प्रकार का भयनहीं होता ।।३७
इमां विद्यां पुरा कश्चित् कौशिको धारयन्द्विजः।
योगधारणया स्वाङ्गं जहौ स मरूधन्वनि ।।३८
देवराज! प्राचीनकाल की बात है, एक कौशिकगोत्री ब्राह्मण ने इस विद्या को धारण करकेयोगधारणा से अपना शरीर मरूभूमि में त्याग दिया ।।३८
तस्योपरि विमानेन गन्धर्वपतिरेकदा।
ययौ चित्ररथः स्त्रीर्भिवृतो यत्र द्विजक्षयः ।।३९
जहाँ उस ब्राह्मण का शरीर पड़ा था, उसके उपर से एकदिन गन्धर्वराज चित्ररथ अपनी स्त्रियों के साथविमान पर बैठ कर निकले।।३९
गगनान्न्यपतत् सद्यः सविमानो ह्यवाक् शिराः।
स वालखिल्यवचनादस्थीन्यादाय विस्मितः।
प्रास्य प्राचीसरस्वत्यां स्नात्वा धाम स्वमन्वगात् ।।४०
वहाँ आते ही वे नीचे की ओर सिर किये विमान सहितआकाश से पृथ्वी पर गिर पड़े इस घटना से उनके आश्चर्यकी सीमा न रही जब उन्हें बालखिल्य मुनियों नेबतलाया कि यह नारायण कवच धारण करनेका प्रभाव है, तब उन्होंने उस ब्राह्मण देव=की हड्डियों को ले जाकर\\\पूर्ववाहिनी सरस्वती नदी में प्रवाहित कर दिया औरफिर स्नान करके वे अपने लोक को चले गये ।।४०
।।श्रीशुक उवाच।।
य इदं शृणुयात् काले यो धारयति चादृतः।
तं नमस्यन्ति भूतानि मुच्यते सर्वतो भयात् ।।४१
श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परिक्षित् जो पुरूष इस
नारायण कवच को समय पर सुनता है और जो आदर पूर्वकइसे धारण करता है, उसके सामने सभी प्राणी आदर सेझुक जाते हैं और वह सब प्रकार के भयों से मुक्तहो जाता है ।।४१
एतां विद्यामधिगतो विश्वरूपाच्छतक्रतुः।
त्रैलोक्यलक्ष्मीं बुभुजे विनिर्जित्यऽमृधेसुरान् ।।४२
परीक्षित् ! शतक्रतु इन्द्र ने आचार्य विश्वरूपजी से यहवैष्णवी विद्या प्राप्त करके रणभूमि मेंअसुरों को जीत लिया और वे
त्रैलोक्यलक्ष्मी का उपभोग करने लगे 42
।।इति श्रीनारायणकवचं सम्पूर्णम्।।
( श्रीमद्भागवत स्कन्ध 6 , अ। 8 )

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